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यु॒वं न॑रा स्तुव॒ते प॑ज्रि॒याय॑ क॒क्षीव॑ते अरदतं॒ पुर॑न्धिम्। का॒रो॒त॒राच्छ॒फादश्व॑स्य॒ वृष्ण॑: श॒तं कु॒म्भाँ अ॑सिञ्चतं॒ सुरा॑याः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuvaṁ narā stuvate pajriyāya kakṣīvate aradatam puraṁdhim | kārotarāc chaphād aśvasya vṛṣṇaḥ śataṁ kumbhām̐ asiñcataṁ surāyāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒वम्। न॒रा॒। स्तु॒व॒ते। प॒ज्रि॒याय॑। क॒क्षीव॑ते। अ॒र॒द॒त॒म्। पुर॑म्ऽधिम्। का॒रो॒त॒रात्। श॒फात्। अश्व॑स्य। वृष्णः॑। श॒तम्। कु॒म्भान्। अ॒सि॒ञ्च॒त॒म्। सुरा॑याः ॥ १.११६.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:116» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरा) विनय को पाये हुए सभा सेनापति ! (युवम्) तुम दोनों (पज्रियाय) पदों में प्रसिद्ध होनेवाले (कक्षीवते) अच्छी सिखावट को सीखे और (स्तुवते) स्तुति करते हुए विद्यार्थी के लिये (पुरन्धिम्) बहुत प्रकार की बुद्धि और अच्छे मार्ग को (अरदतम्) चिन्ताओं तथा (वृष्णः) बलवान् (अश्वस्य) घोड़े के समान अग्नि संबन्धी कलाघर के (कारोतरात्) जिससे व्यवहारों को करते हुए शिल्पी लोग तर्क के साथ पार होते हैं उस (शफात्) खुर के समान जल सींचने के स्थान से (सुरायाः) सींचे हुए रस से भरे (शतम्) सौ (कुम्भान्) घड़ों को ले (असिञ्चतम्) सींचा करो ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - जो शस्त्रवेत्ता अध्यापक विद्वान् जिस शान्तिपूर्वक इन्द्रियों को विषयों से रोकने आदि गुणों से युक्त सज्जन विद्यार्थी के लिये शिल्पकार्य्य अर्थात् कारीगरी सिखाने को हाथ की चतुराईयुक्त बुद्धि उत्पन्न कराते अर्थात् सिखाते हैं वह प्रशंसायुक्त शिल्पी अर्थात् कारीगर होकर रथ आदि को बना सकता है। शिल्पीजन जिस यान अर्थात् उत्तम विमान आदि रथ में जलघर से जल सींच और नीचे आग जलाकर भाफों से उसे चलाते हैं, उससे वे घोड़े से जैसे वैसे बिजुली आदि पदार्थों से शीघ्र एक देश से दूसरे देश को जा सकते हैं ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे नरा युवं युवां पज्रियाय कक्षीवते स्तुवते विद्यार्थिने पुरन्धिमरदतम्। वृष्णोऽश्वस्य कारोतराच्छफात्सुरायाः पूर्णान् शतं कुम्भानसिञ्चतम् ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युवम्) युवाम् (नरा) नेतारौ विनयं प्राप्तौ (स्तुवते) स्तुतिं कुर्वते (पज्रियाय) पज्रेषु पद्रेषु पदेषु भवाय। अत्र पदधातोरौणादिको रक् वर्णव्यत्ययेन दस्य जः। ततो भवार्थे घः। (कक्षीवते) प्रशस्तशासनयुक्ताय (अरदतम्) सन् मार्गादिकं विज्ञापयताम् (पुरन्धिम्) पुरुं बहुविधां धियम्। पृषोदरादित्वादिष्टसिद्धिः। (कारोतरात्) कारान् व्यवहारान् कुर्वतः। शिल्पिन उ इति वितर्के तरति येन (शफात्) खुरादिव जलसेकस्थानात् (अश्वस्य) तुरङ्गस्येवाग्निगृहस्य (वृष्णः) बलवतः (शतम्) शतसंख्याकान् (कुम्भान्) (असिञ्चतम्) सिञ्चतम् (सुरायाः) अभिषुतस्य रसस्य ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - आप्तावध्यापकौ पुरुषौ यस्मै शमादियुक्ताय सज्जनाय विद्यार्थिने शिल्पकार्याय हस्तक्रियायुक्तां बुद्धिं जनयतः स प्रशस्तः शिल्पी भूत्वा यानानि रचयितुं शक्नोति। शिल्पिनो यस्मिन् याने जलं संसिच्याधोऽग्निं प्रज्वाल्य वाष्पैर्यानानि चालयन्ति तेन तेऽश्वैरिव विद्युदादिभिः पदार्थैः सद्यो देशान्तरं गन्तुं शक्नुयुः ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे शास्त्रवेत्ते, अध्यापक, विद्वान ज्या शांतीने इंद्रियांना विषयापासून रोखणाऱ्या गुणांनी युक्त सज्जन विद्यार्थ्यांसाठी शिल्पकार्य अर्थात कारागिरी शिकवीत हस्तक्रियाकौशल्याची बुद्धी उत्पन्न करवितात अर्थात शिकवितात ते प्रशंसायुक्त शिल्पी अर्थात कारागीर रथ इत्यादी बनवू शकतात. शिल्पी (कारागीर) ज्या यान अर्थात उत्तम विमान इत्यादी रथात जलघरातून जल सिंचन करून खाली अग्नी पेटवून वाफेवर चालवितात त्याद्वारे ते घोड्याप्रमाणे विद्युत इत्यादी पदार्थांद्वारे तात्काळ एका देशातून दुसऱ्या देशात जाऊ शकतात. ॥ ७ ॥